एकांत





मुझे एकांत पसंद है, अकेलापन नहीं।।

*समरूप नहीं है, पर्याय नहीं हैं, समभाव नही हैं ,एकांत और अकेलापन। एकांत की खोज करनी पड़ती है अकेलापन समाहित है मन की व्यथा में पूर्व निर्धारित रूप में।एकांत शब्द नहीं अवस्था है,खुद को जानने की व्यवस्था है , स्वयं में पूर्ण है,अकेलापन व्यथा है ,दुख है ,अभाव है, अपूर्ण है।

*पर्वतों की तलहटी में खुद से अपना अस्तित्व बनाता एक बीज का पेड़ में बदलना एकांत है, सदाबहार वृक्षों के झुंड में दबा हुआ,ऊपर उठने की कोशिश करता हुआ फलता फूलता वृक्ष,अकेलापन है।

* अंधेरे रास्तों में प्रदीप्ति बिखेरता छोटा सा दीपक एकांत है, चकाचौंध भरी रोशनी की गलियों में अंत मे जलता हुआ एक चिराग अकेलापन।

अंततः एकांत पूर्ण हैं, अकेलापन अपूर्ण….अधूरा।

अवनति

उन्नति के विपरीत है – अवनति या ‘स्त्रियों का पर्यायवाची’

अवनति खुद से रची गयी इस समाज द्वारा, चलो समझते हैं कैसे….. हमारी अवनति हमारे द्वारा रचित, अंततः एक अच्छा भविष्य यही होगा कि तुम्हारा विवाह एक अच्छे घर मे हो जाएगा तो तुम्हे क्या डर ,क्यूं डर हार का।समाज द्वारा हमारे लिए पहले ही ,बहुत पहले ही एक सुरक्षित घेरा बना दिया गया है,और जो मेहनत करने के बाद तुम्हे मिलेगा वो भी अंततः इसी लक्ष्य की ओर तुम्हे ले जाएगा, इसीलिए डर नहीं रहा ,हारने का ,सपने देख कर उनके टूटने का, अंततः हार जीत के बाद एक बिंदु पर रुकना है ये समझा दिया गया है।

शत प्रतिशत नहीं है ,उन स्त्रियों का आंकड़ा जो इस अवनति के भय से इस सुरक्षित घेरे से कोसो दूर खुद को उन्नतशील बनाने में प्रयासरत हैं , उन्नति समाचार पत्रों में एक दिन की खबर के बाद और कुछ नहीं ,ये उन्नति उन स्त्रियों को सबक नहीं जो सुरक्षित हैं। समझना होगा *सुरक्षित रहना अवनति का पर्यायवाची बन रहा है ,इस घेरे में और फिर भय लगेगा सुरक्षा से …….भविष्य का भय, अंधेरों का भय,अस्तित्व का भय, अंततः अवनति का पर्यायवाची बनने का भय।

#जीने की तमन्ना है।

जिंदगी,,,, थमी सी है

सब हक मिल जाए फिर भी एक कमीं सी है,
क्यूँ होठों पर चीख दबी और आंखों में नमीं सी है,
किरदार कई हैं तेरे पर मंच तो वही है ,
फिर क्यूँ,हर किरदार में तू सहमी सी है,
वक्त के साथ बेतरतीब दौड़ रही है ,बस दौड़ रही है,
जिंदगी- फिर क्यूँ तू मंझधार में आकर थमी सी है।

लाज़

मेरी सहमती शर्म का
आगाज़ होने दो,
अभी मैं चिड़िया हूँ,,,,
मुझे बाज़ होने दो,
छुप छुप कर रोने से
सिर्फ तसल्ली मिली,
चीख लेने दो मुझे ,
सरेआम रोने दो,
साथ होने भर का ,
अहसास काफी नहीं,
एक कदम बढ़ाने तो दो,
मुझे हमराज़ होने दो,
मेरी लाज तुम सम्भाल लेना ना,
आज मुझे मुझमें खोने दो।

🌺 साथ मिलेगा तो हक़ भी मिल जाएगा।🌺

सूर्य की पहली किरण🌄

काली धुंध को मिटाती हुई,
रजनी के अंधकार को छुपाती हुई,
नव पल्लव,कलियों को जगाती हुई,
आशाओं का एक दिया लिये हुए,
सूर्य की पहली किरण,🌞
नव उमंगों को हर्षाती हुई।

ओस की बूंदों को विदा कर,
रजत हरियाली से सजा कर,
पंक्षियों को नीड़ से जगा कर,
फूलों की मुस्कान लिए हुए,
सूर्य की पहली किरण 🌞
थकी नींद सी अंगड़ाती हुई।

नई उम्मीदों सी, आशाओं सी,
कल,आज और कल की परिभाषा सी,
मंगल की उम्मीद,पावन अभिलाषा सी,
मानव मन की उड़ान लिए हुए,
सूर्य की पहली किरण, 🌞
नव वधु सी इठलाती हुई।

“तेरी मेरी दोस्ती”

# friendship

कहीं एक तारा टूटा होगा,
किसी ने धागा बंधा होगा जा कर मज़ार
पीपल की पूजा की होगी या
दुआओं के लिए हाथ उठे होंगे हजार,
तब जाकर एक रिश्ता बना – दोस्ती
तेरी मेरी दोस्ती, अचानक सी, बेवक्त सी
जुड़ी हुई हो जैसे कलम और दवात सी
बिखरे पन्नों को सजाने वाली
शब्दों से मिली , एक सौगात सी।
कोई फूल खिला होगा,
बारिश की बूंदे बिखरी होंगी आसमान से,
ओस सिमट कर हरियाली में छुप गयी होगी,
या इंद्रधनुष सजा होगा विहान से,
तभी तो हम मिले, मिले बस आहट से,
हम जुड़े,जुड़े फिर चाहत से,
शब्दों को लय में सजाया ,
तूने मेरी,मैंने तेरी कविताओं को अपना बनाया,
तेरी मुस्कुराहट को , दुख को समझने लगी हूँ,
देखो न,, अब संग तुम्हारे संवरने लगी हूँ,
आंखों में काजल नहीं सपने सजाती हूँ,
एक बार हम मिल पाए, हर सुबह दोहराती हूँ,
दूर होकर भी डोर से जुड़े, जान ही नहीं पाए न
,,, हम कब इस राह पर मुड़े।
किसी ने दिया जलाया होगा,
नवशिशु मुस्कराया होगा माँ की गोद में,
कोई नया गीत सजा होगा किसी के लवों पर,
पंक्षी निकले होंगे दाने के लिए प्रमोद में,
कुछ तो खास हुआ होगा,
कोई दिल के पास हुआ होगा,
अपना है ये अहसास हुआ होगा,
जो हम पास हैं,,, दूर होकर भी।
🌺ताशु

गुल्लक ( जीवन की सीख)

एक दो पांच के सिक्कों से भरी हुई, खनखनाहट के साथ,मिट्टी की खुशबू समेटे हुए,मेरी सारी बचपन की यादों की ,,, गुल्लक। 🌺 वो दादी से मिला एक सिक्का भागकर गुल्लक में छुपा देना, नाम लिख कर गुल्लक पर उसे कमरे में सजा देना, कागज के नोट से ज्यादा मुझे सिक्के पसंद थे, वो आसानी से गुल्लक में चले जाते थे, नोट को तोड़ मरोड़ कर डालना और उसमें भी फट जाता तो बड़ा गुस्सा आता। मुझे याद है कैसे हम और मिट्टी की गुल्लकों पर रंग बिरंगी अक्षरों से अपना नाम सजाते थे, टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों से अपने पसंदीदा कार्टून पात्र बनाकर उन पर रंग भरते थे। एक बार छोटे भाई के जन्मदिन के लिए उपहार में उसका मनपसंद बस्ता लेने के लिए हम सब ने अपनी अपनी गुल्लक के प्रवेशद्वार को बड़ा कर लिया था ताकि उसमें से बिना गुल्लक को तोड़े कुछ पैसे निकाल सकें बाद में मां के पूछने पर यह बहाना बनाया कि बड़ी नोट आसानी से डाली जा सके इसीलिए हमने ऐसा किया , उस समय की एक बात याद करके बहुत आनंद आता है ,त्योहार के दिन हमारी दादी ने₹50 का नोट देकर कहा था कि दोनों भाई बहन आधा-आधा ले लेना तो मेरे छोटे भाई ने उस नोट को फाड़कर आधा किया और झट से गुल्लक में डाल दिया , ऐसा लगता है कि गुल्लक भी हमारी नादानियां को देखकर मुस्कुराती होगी वह भी हमारे साथ हमारे बचपन को जी रही थी।

समय के साथ गुल्लक भी बदल गई, अपनी प्रवृत्ति में नहीं बाहरी आवरण में। अब गुल्लक जल्दी ही भर जाती हैं पर शायद उनमें अब खुशबू , अपनापन ,यादें ,सीख नादानियां ,हास्य ,परिवार का महत्व इन सब के लिए कोई जगह नहीं रह पाती। गुल्लक का काम सिर्फ बचत प्रवृत्ति को बढ़ावा देना नहीं बल्कि बचपन को कैसे समझदारी की ओर ले जाना है यह भी सिखाना था। मेरे पिता आज भी दिवाली पर घर पर एक गुल्लक जरूर खरीद कर लाते हैं और वह गुल्लक मुझे मेरे बचपन की ओर ले जाती है।

मिट्टी की गुल्लक,फूट तो जानी ही थी पर बहुत कुछ सिखा गयी,कैसे अपने से भारी समस्याओं को अपने अंदर संभाल कर रखते हैं, कैसे मुश्किल समय के लिए खुद को मजबूत बनाते हैं , कैसे टूट कर भी किसी के काम आते हैं।बचपन सिर्फ यादें नही एक किताब है जो सिखाता है बिना कहे बहुत कुछ,, सीखा ना गुल्लक से , पर परेशानियां जब टूटने को मजबूर कर दे तो भी उन अच्छे लम्हों को समेटकर परेशानी का हल खोजना चाहिए, गुल्लक टूटने पर भी हमें मुस्कराहट देकर जाती हैं ।🌺 ।।।।। गुल्लक ।।।।।🌺

गांव की यादें

सर्द शहर में याद हैं आती, सुलभ सुहानी गाँव की रातें ,
खेत की खुशबू ,नीम की छायाँ, दादी माँ की मीठी बातें,
कच्ची अमियाँ,मक्खन रोटी, आशीर्वादों की सौगातें,
आंखें नम हो जाती ,रिसती,भूली बिसरी गाँव की यादें।
बैलों की घण्टी की रुनझुन,मुनियाँ की पैरों की छुन छुन,
संध्या बन्दन कर सोते थे ,उठते कोयल की बोली सुन
चाय कहां माँ पीने देती,दूध दही और मक्खन खाते
आंखें नम हो जाती ,रिसती,भूली बिसरी गाँव की यादें।
शोर शराबे भाग दौड़ में,भाग रहे वृत्ति की होड़ में,
परिवारों का चलन है टूटा,सब खोया इस विरह जोड़ में
घुटता जीवन ,धुंध हुआ सब,गांव के पंछी लौटना चाहते
आंखें नम हो जाती ,रिसती,भूली बिसरी गाँव की यादें।

कुछ कहता है

Plz..Respect your parents, ☺

बूढ़ा बरगद, पंक्षी का घर

रोती आंखें पर चुप हैं अधर

वो आसमान का उजियारा

रातों का अंधेरा सहता है

तुम सुनो दर्द उस जीवन का

जो चुप है वो कुछ कहता है।

हा नीम दरख्ते, कड़वा है

पर रोग उसी से मिटते हैं

हर पल सहारा बने वही

अब गिर कर रस्ते कटते हैं

हँस कर कहते में ठीक अभी

पर दुख तो मन में रहता है

तुम सुनो दर्द उस जीवन का

जो चुप है वो कुछ कहता है।

उसकी शाखाएं वृद्ध हुई

पर छांव अभी भी देती हैं

मांगे खुशियां वो तेरे लिए

गम हँसकर अब भी सहता है

तुम सुनो दर्द उस जीवन का

जो चुप है वो कुछ कहता है।